चुनाव दर चुनाव फेल होते फार्मूला से बसपा का आस्तित्व खतरे मे।

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चुनाव दर चुनाव फेल होते फार्मूला से बसपा का आस्तित्व खतरे मे।

Wednesday, October 23, 2024 | October 23, 2024 Last Updated 2024-10-24T06:25:23Z
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चुनाव दर चुनाव फेल होते फार्मूला से बसपा का आस्तित्व खतरे मे।लखनऊ। कभी वंचित-शोषित समाज पर एकछत्र राज करने वाली बहुजन समाज पार्टी का अस्तित्व ही अब खतरे में दिखाई दे रहा है। लोकसभा के बाद हरियाणा व जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के हालिया नतीजों से साफ है कि ढलती उम्र के साथ ही बसपा प्रमुख मायावती की वंचित समाज पर पकड़ ढीली होती जा रही है।

‘दलित-ब्राह्मण’ सोशल इंजीनियरिंग से लेकर ‘दलित-मुस्लिम’ और दलित-जाट जैसे फॉर्मूलों व प्रयोगों के चुनाव दर चुनाव फेल होने से पार्टी का प्रदर्शन बद से बद्तर होता जा रहा है।


पार्टी को नए सिरे से खड़ा करने के लिए मायावती को अपने जिस युवा भतीजे आकाश आनंद से बड़ी उम्मीद है, वह भी फिलहाल कोई कमाल नहीं कर पा रहे हैं। दलितों के उत्थान के लिए सन् 1984 में कांशीराम द्वारा बनाई गई बहुजन समाज पार्टी वर्ष 2007 में पहली बार ‘दलित-ब्राह्मण’

सोशल इंजीनियरिंग के सहारे 206 सीटें व 30.43 प्रतिशत वोट के साथ बहुमत हासिल कर उत्तर प्रदेश में बड़ी राजनीतिक ताकत बनकर उभरी थी।
पार्टी के उत्तर प्रदेश के अलावा पंजाब, मध्य प्रदेश और हरियाणा राज्य से सांसद तक चुने गए।

 वर्ष 2009 के चुनाव में देशभर में 6.17 प्रतिशत वोट के साथ पार्टी के सर्वाधिक 21 सांसद जीते लेकिन उसके बाद ‘हाथी’ की सेहत बिगड़ती चली गई।
वर्ष 2012 में सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला फेल होने से सूबे की सत्ता गंवाने के बाद वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में तो पार्टी का खाता तक न खुला। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भी ‘दलित-मुस्लिम’ फॉर्मूला फेल रहा। इसे मजबूरी ही माना जाएगा कि तकरीबन ढाई दशक पुराने स्टेट गेस्ट हाउस कांड की वजह से जिस समाजवादी पार्टी को बसपा प्रमुख अपना दुश्मन नंबर एक मानती थी,

उससे ही 2019 में गठबंधन करना पड़ा। बसपा सिर्फ 38 सीटों पर चुनाव लड़ी।
वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में अकेले उतरते हुए मायावती ने दलितों के साथ ही ब्राह्मणों और मुस्लिमों पर बड़ा दांव लगाया लेकिन पार्टी 403 सीटों में से सिर्फ एक जीत सकी। दलित वोटों की मजबूत दीवार दरकने से पार्टी का जनाधार भी नौ प्रतिशत से कहीं अधिक खिसक गया। इसी वर्ष लोकसभा चुनाव में ‘एनडीए’

और ‘आईएनडीआईए’ से दूर रहते मायावती ने ‘दलित-मुस्लिम’ फॉर्मूले पर बड़ा दांव लगाते हुए दूसरी पार्टियों से कहीं अधिक मुस्लिमों को टिकट दिए लेकिन न वंचित साथ आया, न मुस्लिम। पार्टी न केवल शून्य पर सिमट गई बल्कि 10 प्रतिशत और जनाधार खिसक गया।
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